क
अरसे बाद
बना पाए मुट्ठी भर धागे
जिसमें और रंग न चढ़े कोई
माना कि रंग उचट भी न पाएँगे
थोड़ा तनकर खड़े हो गए वे
अपने लिबास पर इतराए
ख
पता ही न चला कब बारिश आई
कोई तूफानी झोंका सा
घुल गए रंग
धुल गए रंग
फिर भी रँगा बार बार
ग
फटी ओढ़नी तो क्या, लगाई थेगड़ी
सिला टाँका
चीख चीखकर लगाई गाँठ
घ
गोधूलि बेला में बैठी देहरी पर
दिया बाती बिसराए
कि बजने लगा तमूरा समोधन बाबा का
तारों की कंपन में थरथराता स्वर रहीम का
वे गुनगुनाते मेरी बगल से निकल गए
मैं बिखरे धागे बीनकर
जोड़ने की जुगत में
एक बार फिर से लग गई